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उत्तराखंड

उत्तरकाशी आपदा….उफ़ तुम्हारी यह खुदगर्जी, चलेगी कब तक यह मनमर्जी,जिस दिन डालेगी यह धरती सर से निकलेगी सब मस्ती, जनकवि गिर्दा की कविता सोशल मीडिया पर हो रही वायरल…..

देहरादून। उत्तराखंड में बार-बार आने वाली आपदाएं अब सिर्फ प्राकृतिक कारणों से नहीं, बल्कि मानवीय लापरवाहियों और अंधाधुंध निर्माण की चेतावनी भी देती हैं। पहाड़ों पर बेदर्दी से हो रहे निर्माण, नदियों के किनारे खनन और प्राकृतिक संतुलन के साथ खिलवाड़ को लेकर वर्षों पहले ही जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने अपनी कविताओं में चेताया था। लेकिन अफसोस, सिस्टम ने उनकी बातों को न सुनकर मानो आने वाले विनाश को आमंत्रित किया।

उत्तरकाशी में हाल ही में आई भीषण आपदा के बाद सोशल मीडिया पर गिर्दा की एक कविता तेजी से वायरल हो रही है। इस कविता में उन्होंने भविष्य में होने वाले भयानक परिणामों को सटीक शब्दों में बयां किया था—
सारा पानी चूस रहे नदी समंदर लूट रहे हो ” गंगा-जमुना की छाती पर कंकड़-पत्थर कूट रहे हो, उफ़ तुम्हारी यह खुदगर्जी चलेगी कब तक, यह मनमर्जी, जिस दिन डालेगी यह धरती सर से निकलेगी सब मस्ती। सब महल-चौबारे बह जाएंगे, पीने खाली रोखड़ रह जाए तब क्या होगा, दिल्ली-देहरादून में बैठे योजनाकारी तब क्या होगा।”

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गिर्दा की इन पंक्तियों में वह चेतावनी छिपी थी जो आज हकीकत बनकर पहाड़ों के गांवों और शहरों को तबाह कर रही है। पहाड़ों में बिना योजना के सड़कों का चौड़ीकरण, नदियों के किनारे होटलों और रिहायशी इमारतों का निर्माण, और खनन ने न केवल पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ा है, बल्कि आपदा के जोखिम को कई गुना बढ़ा दिया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि पहाड़ों में निर्माण कार्य प्राकृतिक ढलानों और जलधाराओं को बाधित कर रहे हैं, जिससे भारी बारिश के दौरान मलबा और पानी का दबाव बढ़ जाता है। यह दबाव अचानक बादल फटने जैसी घटनाओं को और भयावह बना देता है। गिर्दा ने यह सब वर्षों पहले भांप लिया था और अपनी कविताओं के माध्यम से सरकार, योजनाकारों और जनता को चेताया था। उत्तरकाशी आपदा के बाद स्थानीय लोग भी गिर्दा की बातों को याद कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर लोग लिख रहे हैं—“अगर वक्त रहते गिर्दा की बात सुन ली जाती, तो शायद आज इतने लोग बेघर और बेसहारा न होते।” कई पर्यावरण कार्यकर्ता इसे ‘नीतिगत विफलता’ और ‘विकास के नाम पर विनाश’ करार दे रहे हैं। दिल्ली और देहरादून में बैठे योजनाकारों के लिए यह घटना एक कड़ा सबक है कि विकास की योजनाओं में पर्यावरणीय सुरक्षा और स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों को प्राथमिकता दी जाए। गिर्दा की कविता अब सिर्फ साहित्यिक रचना नहीं, बल्कि आने वाले समय के लिए चेतावनी का दस्तावेज बन चुकी है। उत्तराखंड के इतिहास में यह कोई पहली चेतावनी नहीं थी, लेकिन शायद यह सबसे दर्दनाक साबित हो रही है। गिर्दा की आवाज़ को अनसुना करने का नतीजा आज नदियों के उफान और पहाड़ों की तबाही के रूप में सामने है। अब सवाल यह है कि क्या सिस्टम इस बार जागेगा, या फिर गिर्दा की कविताएं आने वाली नई आपदाओं में भी सिर्फ सोशल मीडिया पर ‘वायरल’ होकर रह जाएंगी।

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